पहली वजह तो यह है कि हम तीनों भाग्यशाली थे कि हमारे साथ कोई सुरक्षा गार्ड नहीं था। इसकी वजह से वर्दीधारी बॉडीगार्ड्स के साथ चल रहे नेताओं की तुलना में हम भीड़ के लिए महत्वहीन थे। दूसरी बात, हमने अपने सभी दरवाजे ठीक से बंद कर रखे थे- बाकी लोगों ने इस ऐहतियात पर ध्यान नहीं दिया था। और आखिरी वजह, यह लगभग चमत्कार ही था कि भीड़ में से किसी ने समिक भट्टाचार्य को नहीं पहचाना। समिक भट्टाचार्य राज्य बीजेपी के प्रवक्ता ओर बंगाली टीवी चैनलों पर मशहूर चेहरा हैं।
मास्क ने बचा लिया इसकी वजह यह हो सकती है कि हम सभी ने कोरोना की वजह से मास्क लगा रखे थे। बहुत मुमकिन है कि ऐसा इसलिए हुआ हो कि सत्तारूढ़ पार्टी के झंडे लिए, मुख्यमंत्री और स्थानीय एमएलए शौकत मुल्ला के जिंदाबाद के नारे लगाती हुई भीड़ में शामिल लोग ऐसे नहीं थे जो अमूमन राजनीतिक विचार-विमर्श में शामिल होते हों। राजनीति के ये पैदल सिपाही कहीं और से प्रेरणा लेते थे।
सभी इतने भाग्यशाली नहीं थेलेकिन इस काफिले में शामिल बहुत से लोग जिनमें महिलाएं भी शामिल थे इतने भाग्यशाली नहीं थे। मीडिया की गाड़ियों समेत बहुत से वाहनों के खिड़की के शीशे टूट गए, कम से कम आठ लोगों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। सबसे बुरा असर तो यह हुआ कि कम से कम 20-30 मोटरसाइकल सवारों को भीड़ ने न केवल पीटा बल्कि उनकी बाइक तक चुरा ली गईं।
हिंसा बन चुकी राजनीति का हिस्सा पिछले 50 वर्षों में राजनीतिक हिंसा पश्चिम बंगाल राजनीति का हिस्सा रही है। नक्सलियों को राह से भटके हुए आदर्शवादी कहा गया लेकिन वह भी शत्रु वर्ग के सदस्यों को चुनचुनकर मारने में माहिर थे। इनमें ट्रैफिक पुलिसकर्मी से लेकर विश्व विद्यालयों के कुलपति तक शामिल थे। उनकी गर्मागर्म राजनीतिक बहसें इस बात पर हुआ करती थीं कि वर्ग हिंसा में चाकू का इस्तेमाल बेहतर है या फिर बंदूक का।
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