7-8 साल के रतन टाटा से दादी के वे दो शब्द, जिन्होंने उनकी पूरी जिंदगी बदल दी

नई दिल्‍ली
रतन टाटा की गिनती आज देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों में होती है। विरासत में जरूर टाटा का नाम मिला था मगर यहां तक पहुंचने का सफर बिलकुल भी आसान नहीं रहा। बचपन में पारिवारिक समस्‍याओं से जूझने वाले रतन टाटा के लिए उनकी दादी बड़ा सहारा बनीं। 1948 में जब रतन सिर्फ 10 साल के थे तो पिता नवल और मां सोनू का तलाक हो गया। तब सर रतनजी टाटा की विधवा, नवजीबाई टाटा ने रतन को गोद ले लिया। वो दादी ही थीं जिन्‍होंने रतन टाटा और उनके भाई को मां-बाप के तलाक के बाद पाला-पोसा। दादी की सिखाई कई बातें रतन टाटा की जिंदगी में काम आईं और ये बात वो खुद कहते हैं। मगर दादी की एक सीख ऐसी थी जिसने रतन टाटा की पूरी जिंदगी ही बदल थी। क्‍या थी वो बात, पढ़‍िए।

दादी के वो शब्‍द जो रतन टाटा के मन में छप गए‘ह्यूमंस ऑफ बॉम्‍बे’ से बातचीत में टाटा कहते हैं, “यूं तो मेरा बचपन खुशगवार था मगर जैसे-जैसे मैं और मेरा भाई बड़े हुए, हमें रैगिंग और निजी मुश्किलों का सामना करना पड़ा…अपने पेरेंट्स के तलाक की वजह से… जो उन दिनों आज की तरह आम बात नहीं थी। लेकिन मेरी दादी ने हमें हर तरह से पाला। जब मेरी मां की दूसरी शादी हुई तो स्‍कूल में लड़कों ने हमारे बारे में काफी कुछ उलटा-सीधा कहना शुरू कर दिया था। लेकिन हमारी दादी ने हमें हर कीमत पर मर्यादा बनाए रखने को कहा, वो बात आज तक मेरे साथ है।”


ताउम्र काम आई दादी की वो सीख
टाटा आगे कहते हैं, “दादी की बात मानकर हमने उन परिस्थिति‍यों से मुंह मोड़ लिया जिनमें हम शायद लड़ जाते। मुझे आज भी याद है, दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद, वह मुझे और मेरे भाई को गर्मी की छुट्टियों में लंदन ले गई थीं। वहां मैंने काफी सारे जीवन मूल्‍य सीखे। वह हमसे कहतीं, ‘ये मत कहो’ या ‘उस बारे में चुप रहो’ और वहीं से हमारे दिमाग में ‘सबसे ऊपर मर्यादा’ की बात घर कर गई। वह हमेशा हमारे लिए मौजूद थीं।”

टाटा आगे कहते हैं, “मैं वॉयलिन सीखना चाहता था, पिता का जोर पियानो पर था। मैं अमेरिका के कॉलेज में पढ़ना चाहता था, उन्‍होंने यूके की रट लगाई। मैं आर्किटेक्‍ट बनना चाहता था, वह मुझे इंजिनियर देखना चाहते थे। अगर मेरी दादी न होतीं तो मैं अमेरिका की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी न जा पाया होता। यह उनकी वजह से ही था कि मैं भले ही मैकेनिकल इंजिनियरिंग के लिए दाखिल हुआ था, मगर फिर आर्किटेक्‍चर में डिग्री लेकर बाहर निकला। मेरे पिता बेहद नाराज थे और काफी बहस भी हुई लेकिन आखिर मैं अपने कदमों पर खड़ा था। यह मेरी दादी थी जिन्‍होंने मुझे सिखाया कि बोलने की हिम्‍मत भी सौम्‍य और गरिमापूर्ण हो सकती है।”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *