क्यों विपक्ष पर भारी पड़ रही हैं राहुल की विदेश यात्राएं ?

नई दिल्लीन ही यह पहला मौका है जब किसी महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम के बीच विदेश यात्रा पर चले गए हों, ना ही कांग्रेस के लिए उनके बचाव में तरह-तरह के तर्क गढ़ने का पहला मौका है और ना बीजेपी के लिए इस मुद्दे पर राहुल और कांग्रेस पार्टी की खिल्ली उड़ाने का ही यह पहला मौका है। पहला मौका अगर कुछ है तो वह यह है कि उनकी विदेश यात्राएं अब विपक्ष को भारी पड़ने लगी हैं। विपक्ष के एक बड़े नेता को लेकर कहा जा रहा है कि पिछले दिनों जब उनसे मिलने अलग-अलग दलों के कुछ नेता गए तो वह राहुल गांधी को लेकर बहुत परेशान दिखे। यह कहते सुने गए- ‘हो सकता है कि राहुल को कोई फर्क न पड़ता हो लेकिन हम पर इसका फर्क पड़ता है।’ गैर एनडीए दलों के ज्यादातर नेता लगभग एक राय के हैं कि ऐसे वक्त राहुल गांधी को विदेश यात्रा पर जाने से बचना चाहिए था।

कई अहम मौकों पर विदेश यात्राएं कर चुके हैं राहुल
विपक्ष के नेताओं का नजरिया है कि विधानसभा के चुनाव में तो क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्यों में एनडीए से मुकाबला कर रहे हैं। उन्हें वहां राहुल गांधी की जरूरत नहीं है लेकिन लोकसभा के चुनाव में तो बीजेपी का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीय स्तर की पार्टी और उसके एक नेता का चेहरा तो होना ही चाहिए। इस मौके के लिए क्षेत्रीय दलों से बात नहीं बनने वाली।

इस भूमिका में कांग्रेस और राहुल गांधी को होना चाहिए था लेकिन अहम मौकों के दरम्यान अपने व्यक्तिगत अजेंडा को तरजीह देते हुए राहुल के विदेश यात्राओं पर चले जाने से उनकी छवि एक गैर जिम्मेदार नेता की बन रही है। ऐसे में मोदी के खिलाफ धारणा की लड़ाई कमजोर हो चुकी है। राहुल गांधी की विदेश यात्राओं में तमाम ऐसी हैं जो उन्होंने ऐसे मौकों पर कीं जिस वक्त मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता होने के नाते उनका देश में मौजूद रहना ज्यादा जरूरी था। ये यात्राएं टाली जा सकतीं थीं।

लोकसभा में एक सवाल के जवाब में सरकार की ओर से पिछले साल यह बताया गया था कि 2015 से 2019 के दरम्यान राहुल गांधी ने 247 बार विदेश यात्राएं की हैं। कई बार तो कांग्रेस पार्टी को ही अपने कार्यक्रमों को इस वजह से स्थगित करना पड़ा है क्योंकि राहुल गांधी को विदेश यात्रा पर जाना था। राहुल की हालिया विदेश यात्रा भी इसी वजह से चर्चा में ज्यादा है कि अव्वल किसान आंदोलन शबाब पर है। दूसरे, खुद कांग्रेस की स्थापना दिवस भी था लेकिन इन दोनों मौकों को राहुल ने नजरअंदाज कर दिया।

पिछले साल जब देशभर में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ आंदोलन चल रहा था, ऐसे मौके पर राहुल गांधी दक्षिण कोरिया चले गए थे। हालांकि पार्टी का तर्क था कि वह कार्यक्रम पहले से तय था, इस वजह से टाला नहीं जा सकता था। 2016 में भी जब देश में पांच महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव प्रस्तावित थे तो भी राहुल गांधी का विदेश जाना संबंधित राज्यों के कांग्रेस नेताओं को भी नहीं भाया था। पंजाब के नेताओं की नाराजगी तो सार्वजनिक तौर पर दिखी भी थी। महाराष्ट्र में गठबंधन में शामिल होने का मुद्दा भी इसी वजह से काफी लटका रहा था।

नए चेहरे के तलाश में दिख रहा विपक्ष
शायद यही वजह है कि विपक्ष के अंदर यह विचार जन्म लेता दिख रहा है कि अगर मुख्य पार्टी होने के नाते कांग्रेस अपनी भूमिका का सही तरीके से निर्वहन नहीं कर पा रही है तो विपक्ष को अपने बीच से ही कोई नया चेहरा राष्ट्रीय राजनीति के लिए प्रस्तुत करना चाहिए। इस भूमिका के लिए सबसे ज्यादा शरद पवार को उपयुक्त पाया जा रहा है। कई क्षेत्रीय दलों के नेता उनके नाम पर सहमति भी जता चुके हैं। क्षेत्रीय दलों में कांग्रेस को लेकर कोई उत्साह इसलिए नहीं दिख रहा है क्योंकि विधानसभा चुनावों में उसका स्ट्राइक रेट काफी कम होता जा रहा है। बिहार उसका ताजा उदाहरण है।

जब उसने दबाव के जरिए 2015 के मुकाबले आरजेडी से कहीं ज्यादा सीटें छुड़वा लीं लेकिन उस पर कामयाबी दर्ज नहीं कर पाई। नतीजों के बाद आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी को यह कहना पड़ा, “कांग्रेस ने 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन 70 चुनावी रैलियां तक नहीं कर पाई। राहुल गांधी मात्र तीन दिन के लिए आए और प्रियंका गांधी तो आईं भी नहीं। जब चुनाव प्रचार जोरों पर था तो राहुल गांधी शिमला में प्रियंका गांधी के घर पर पिकनिक मना रहे थे। उन्हें इस पर गंभीर होकर विचार करना चाहिए।”

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