भिलाई। ‘विवेकानंद हमारे समाज के लोक शिक्षक थे’ यह बातें श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल विश्वविद्यालय भिलाई के कुलपति प्रो. सदानंद शाही ने विश्वविद्यालय में आयोजित युवा दिवस पर आयोजित समारोह में बतौर मुख्य वक्ता कहीं। श्री शाही ने कहा कि विवेकानन्द भारत की उन्नति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा इस धारणा को मानते हैं कि ‘संसार में हम सर्वोच्च जाति के हैं।’ उनका मानना है कि यह धारणा हमें दूसरों से कुछ भी सीखने से रोकती है। विवेकानन्द मानते हैं कि भारतीयों का शेष दुनिया से अलग-थलग रहना और संसार की गति के अनुरूप चलना न सीख पाना ही भारतीय मन की अवनति का प्रमुख कारण हैं।
श्री शाही ने बताया कि यहीं रायपुर में रहते हुए विवेकानंद को आध्यात्मिक अनुभूति हुई थी। मधुमक्खियों का छत्ता देखकर उन्हें आध्यात्मानुभूति हुई। इसी प्रकृति आध्यात्म पर आधारित मानव धर्म को स्पष्ट करते हुए विवेकानन्द कहते हैं ‘ये मनुष्य और पशु जिन्हें हम आस-पास और पीछे देख रहे हैं, ये ही हमारे ईश्वर हैं। इनमें सबसे पहले पूज्य हैं हमारे अपने देशवासी। परस्पर ईर्ष्या-द्वेष करने और झगड़ने के बजाय हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। यह ईर्ष्या-द्वेष और कलह अत्यन्त भयावह कर्म है।’ विवेकानन्द धर्म शिक्षा पर जितना जोर देते हैं उतना ही लोक शिक्षा पर भी जोर देते हैं। वे आधुनिक शिक्षा की आलोचना इस आधार पर करते है कि यह हमें निषेधात्मक बनाती है। वे कहते हैं कि ‘निषेधात्मक बाते सीखते-सीखते बालक जब सोलह वर्ष की अवस्था को पहुँचता है निषेधों की खान बन जाता है, उसमें न जान रहती है न रीढ़।’ जान और रीढ़ के बिना स्वतंत्र विचारों की कल्पना ही नहीं की जा सकती। विवेकानन्द की बात आज भी सही है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में स्वतन्त्र विचारों के मनुष्य पैदा करने की क्षमता ही नहीं है।
विवेकानन्द हिन्दुस्तान में इस यथार्थ शक्ति पूजा के हिमायती थे। इस यथार्थ शक्ति पूजा का मूल मन्त्र स्त्री शिक्षा में देखते हैं। वे स्त्रियों के लिए अलौकिक और लौकिक दोनों तरह की शिक्षा की जरूरत पर बल देते हैं। ऐसी शिक्षा जो स्त्रियों को स्वतंत्र और शक्तिशाली बनाये, दूसरे गुणों के साथ उनके भीतर शूरता और वीरता का संचार करे। विवेकानन्द शिक्षा को सर्वजन सुलभ बनाने वाले विचारक हैं। वे मानते थे कि भारतीय समाज मे परम्परा से जिन लोगों को शिक्षा और ज्ञान से वंचित रखा गया और शक्तिहीन, गुलाम और दरिद्र बनाया गया उन्हें शिक्षित करना सबसे जरूरी है। हिन्दुस्तान का किसान, मजदूर, दलित उपेक्षित वर्गों के साथ स्त्रियाँ भी शिक्षा के वरदान से वंचित रखी गयी थीं। शिक्षा को ही बन्धन में बांध कर रखा गया था। विवेकानन्द शिक्षा को हर तरह के बन्धन से मुक्त करने का आह्वान करते हैं। उनका दृढ़ मत था कि जाति, धर्म, लिंग, भाषा आदि के बंन्धन से मुक्त करके सर्वजन सुलभ बनाने में ही शिक्षा की सार्थकता है ।
इस अवसर पर अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए विश्वविद्यालय के कुलसचिव पीके मिश्र ने कहा कि युवा ऊर्जा के स्रोत होते हैं। विश्वविद्यालयों की जिम्मेदारी इस युवा ऊर्जा को दिशा देना है। कार्यक्रम का संचालन हिन्दी विभाग के डॉ. रवीन्द्र कुमार यादव ने और धन्यवाद ज्ञापन विनय पीताम्बर ने किया।