मूवी रिव्यू: कैसी है पंकज त्रिपाठी के लीड रोल वाली फिल्म 'कागज'

आप कहीं भी किसी भी सरकारी काम के लिए जाएं तो इसके लिए की जरूरत होती है। इन कागजों के बिना आपका कोई काम नहीं होता लेकिन अगर इन्हीं कागजों में आपको मृत घोषित कर दिया जाए तो आप जीते जी कोई भी काम नहीं कर सकते हैं। इस एक सरकारी कागज की अहमियत बताने वाली सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्म है ‘कागज’। फिल्म लाल बिहारी मृतक नाम के व्यक्ति के जीवन पर आधारित है जिन्होंने 18 साल के लंबे संघर्ष के बाद खुद को जीवित साबित किया था।

कहानी: यूपी के खलीलाबाद के एक छोटे से गांव का रहने वाला भरत लाल () एक बैंड मास्टर है जो अपनी पत्नी रुक्मणि (एम मोनल गज्जर) और बच्चों के साथ सुख से रह रहा है। भरत लाल की पत्नी रुक्मणि उससे अपना काम और बढ़ाने के लिए बैंक से लोन लेने की सलाह देती है। जब भरत लाल बैंक जाता है तो लोन के बदले उससे गिरवी रखने के लिए जमीन के कागज मांगे जाते हैं। भरत लाल अपनी जमीन के कागज लेने जाता है तो यह जानकर हैरान रह जाता है कि कागजों के मुताबिक वह मर चुका है और उसकी जमीन उसके चाचा के बेटों को बांट दी गई है। इसके बाद शुरू होता है भरत लाल का लंबा संघर्ष जिसमें वह लेखपाल से लेकर प्रधानमंत्री और कोर्ट के चक्कर काटता रहता है। भरत लाल की मदद के लिए आगे आते हैं साधुराम केवट वकील () जो अंत तक उनकी मदद करते हैं। भरत लाल अपने नाम के आगे मृतक लगा लेता है और उसके साथ पूरे प्रदेश के ऐसे लोग जुड़ जाते हैं जिन्हें कागजों में मृत घोषित कर दिया गया है। इस लंबे संघर्ष में भरत लाल का काम-धंधा बंद हो जाता है, परिवार साथ छोड़ देता है लेकिन भरत लाल हार नहीं मानता है। 18 साल के लंबे संघर्ष के बाद भरत लाल कैसे कागजों में खुद को जीवित करता है, इसी संघर्ष की कहानी है ‘कागज’।

रिव्यू: फिल्म में गांव का सरपंच एक डायलॉग बोलता है, ‘इस देश में राज्यपाल से भी बड़ा लेखपाल होता है और उसके लिखे को कोई नहीं मिटा सकता।’ यह आज भी हमारी व्यवस्था की सच्चाई है। देशभर के गांव-देहातों में आज भी भरत लाल जैसे जिंदा मरे हुए लोग घूम रहे हैं। लोग पूरी जिंदगी अदालतों के चक्कर काटते हैं लेकिन कभी खुद को जीवित साबित नहीं कर पाते और कागजों में मरने के बाद वास्तव में मर जाते हैं। डायरेक्टर सतीश कौशिक फिल्म को बिल्कुल हल्के-फुल्के अंदाज में शुरू करते हैं लेकिन वक्त के साथ यह फिल्म बेहद सीरियस होती जाती है। जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती जाती है तो आप भरत लाल की पीड़ा और जिद को गहराई से समझने लगते हैं। फिल्म संघर्ष के जज्बे का पॉजिटिव संदेश भी देती है। हालांकि फिल्म कभी-कभी बहुत धीमी लगने लगती है लेकिन भरत लाल के नए-नए हथकंडे एक बार फिर कहानी में आपका इंट्रेस्ट जगा देते हैं। फिल्म को शायद थोड़ा छोटा किया जा सकता था।

ऐक्टिंग: इस समय पंकज त्रिपाठी को बॉलिवुड का नगीना कहना बिल्कुल सही रहेगा। वह हर किरदार में इतना भीतर तक उतर जाते हैं कि बिल्कुल उसी के जैसे दिखने लगते हैं। पंकज त्रिपाठी अपनी हर फिल्म से ऐक्टिंग की बुलंदियां छूते जा रहे हैं। भरत लाल के किरदार में पंकज त्रिपाठी ने इतनी अच्छी ऐक्टिंग की है कि आप उनके किरदार का दर्द समझ सकते हैं। शायद भरत लाल का किरदार उनके जैसा कुछ गिने-चुने ऐक्टर ही निभा सकते हैं। भरत लाल की पत्नी रुक्मणि के किरदार में एम मोनल गज्जर और वकील साधुराम के किरदार में सतीश कौशिक जंचे हैं। फिल्म में मीता वशिष्ठ, नेहा चौहान, अमर उपाध्याय और ब्रिजेंद्र काला के किरदार बहुत छोटे हैं लेकिन सभी ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है। फिल्म के एकमात्र आइटम सॉन्ग में संदीपा धर बेहद खूबसूरत लगी हैं।

क्यों देखें: पंकज त्रिपाठी के फैन हों और बिल्कुल नए और अलग मुद्दे पर फिल्म देखना चाहते हों तो मिस न करें।

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