उन्हें (नीतीश कुमार) पता ही नहीं चल रहा है कि उनका (नीतीश कुमार) दोस्त कौन है और दुश्मन कौन है? शपथ के 56 दिन बाद नीतीश कुमार को अब तक पता नहीं चला कि उनका ‘दोस्त’ कौन है और ‘दुश्मन’ कौन है? जब बिहार जैसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री किसी बड़ी बैठक (जेडीयू प्रदेश कार्यकारिणी) में ये बातें कहे तो शंका होती है।
Bihar Politics : बिहार में आजकल ‘दोस्त’ और ‘दुश्मन’ वाली सियासत हो रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को समझ में ही नहीं आ रहा है कि उनका ‘शुभ’ चाहनेवाला कौन है और उनका ‘अशुभ’ कौन चाह रहा है? कुल मिलाकर नीतीश कुमार बीजेपी या यूं कहें कि आमलोगों के सामने खुद को ‘पीड़ित’ के तौर पर पेश करना चाह रहे हैं।
उन्हें (नीतीश कुमार) पता ही नहीं चल रहा है कि उनका (नीतीश कुमार) दोस्त कौन है और दुश्मन कौन है? शपथ के 56 दिन बाद नीतीश कुमार को अब तक पता नहीं चला कि उनका ‘दोस्त’ कौन है और ‘दुश्मन’ कौन है? जब बिहार जैसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री किसी बड़ी बैठक (जेडीयू प्रदेश कार्यकारिणी) में ये बातें कहे तो शंका होती है।
‘दोस्त’ और ‘दुश्मन’ में उलझी ‘सत्ता की सियासत’
नीतीश कुमार के बयान पर कई सवाल उठता है। सवाल ये कि क्या वो सही मायने में मुख्यमंत्री हैं? क्या वो 10 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व ठीक से कर रहे हैं? जिसके सहयोग से सत्ता के शीर्ष पर बैठे हैं आखिर वो क्या सोचेगा? सिस्टम में काम करनेवालों के मनोबल पर इसका क्या असर पड़ेगा? ऐसे कई सवाल आप भी सोच सकते हैं जो आपके मन में हो।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जब-जब मौका मिलता हो कहने से नहीं चूकते कि वो ‘दबाव’ में मुख्यमंत्री बने हैं। जेडीयू प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में भी नीतीश कुमार ने कहा कि जब हमारे लोग कम जीते तो हमारा मन नहीं था मुख्यमंत्री बनने का, लेकिन अपनी पार्टी और बीजेपी के चलते माने। मैंने सबके कहने पर और दबाव देने पर मुख्यमंत्री का पद स्वीकार किया। तो क्या अब ये माना जाय कि नीतीश कुमार ‘दबाव’ वाले मुख्यमंत्री बन गए हैं? बिहार की राजनीति या सरकार से जुड़े फैसले वो किसी न किसी के ‘दबाव’ में आकर ले रहे हैं? इससे बिहार, गठबंधन और उनकी पार्टी जेडीयू का कितना भला होगा?
परिस्थितियों वाले मुख्यमंत्री, दबाव वाले मुख्यमंत्री
2015 में नीतीश कुमार आरजेडी और कांग्रेस के सहयोग से मुख्यमंत्री बने और फिर महागठबंधन छोड़कर एनडीए में वापस आ गए। तब से ही आरजेडी के नेता नीतीश कुमार पर धोखेबाजी का आरोप लगाते रहे हैं। लालू प्रसाद के बेटे और बिहार के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव नीतीश पर पीठ में छूरा घोंपने का आरोप लगा चुके हैं। तेजस्वी यादव बार-बार दुहराते रहे हैं कि नीतीश कुमार ‘परिस्थितियों वाला मुख्यमंत्री’ हैं। इस बायन के पीछे तेजस्वी का इशारा ‘कुर्सी’ के लिए टिकी गणित पर होता है। मौजूदा विधानसभा में भी संख्या के आधार पर जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी है मगर उसके नेता नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं। जबकि बिहार में संख्या के हिसाब से सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव विपक्ष में हैं।
इसका मतलब ये हुआ कि बिहार को ‘परिस्थितियों वाला मुख्यमंत्री’ से अब ‘दबाव वाला मुख्यमंत्री’ चला रहा है। चूकि नीतीश कुमार पर ‘परिस्थितियों वाला मुख्यमंत्री’ होने का आरोप विपक्ष लगाता रहा है मगर ‘दबाव वाला मुख्यमंत्री’ होने की बात तो खुद नीतीश कुमार कह रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि वो (नीतीश कुमार) खुद को पीड़ित क्यों बता रहे हैं? वो ‘दबाव वाला मुख्यमंत्री’ कहकर क्या साबित करना चाहते हैं? दबाव की बात कहकर वो कहीं और दबाव तो नहीं बना रहे हैं? बार-बार दबाव की बात कहकर कुछ और तो नहीं सोच रहे हैं? क्या बिहार की सत्ता में कई बड़ी हलचल देखने को मिलेगी? इन तमाम सवालों के जवाब के लिए आनेवाले कुछ और बैठकों का इंतजार करना पड़ेगा।
बीजेपी की रणनीति से नीतीश चकरा गए?
जेडीयू प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में ही नीतीश कुमार ने कहा कि एनडीए में सबकुछ 5 महीने पहले तय हो जाना चाहिए था। कोरोना की वजह से कम समय मिला। कोरोना सिर्फ नीतीश कुमार या उनकी पार्टी की तैयारियों के लिए रोड़ा बना हो, ऐसी तो कोई बात नहीं है। बिहार समेत पूरी दुनिया इससे प्रभावित रही। ये एक सच्चाई है और इससे कोई इनकार भी नहीं कर सकता। मगर जब बिहार बीजेपी के चुनाव प्रभारी बनकर देवेंद्र फडणवीस पटना आए थे तो उनके साथ सीट बंटवारे को लेकर कई दौर की बैठकें हुई।
पटना से लेकर दिल्ली तक बैठकों का दौर चलता रहा। इन तमाम बैठकों में नीतीश कुमार के ‘सियासी कमांडर’ काफी ऐक्टिव थे। उसमें आरसीपी सिंह, ललन सिंह, सजंय झा भी मौजूद रहे। बाद में कई दूसरे नेताओं को भी शामिल किया गया। इन नेताओं पर नीतीश कुमार काफी भरोसा करते हैं। ऐसे में सियासत के माहिर रहे नीतीश कुमार से कहां चूक हो गई? उनका गुणा-गणित कहां गड़बड़ा गया? कम से कम बिहार की राजनीति में जो नीतीश कुमार को जानता है वो तो इसकी बिल्कुल उम्मीद नहीं करेगा। बिहार में पिछले 15 साल से नीतीश कुमार इकलौते नेता हैं जिनके आसपास सीएम की ‘कुर्सी’ चक्कर काटती रहती है। राज्य में चाहे उनकी पार्टी की हैसियत जो भी रहे।
क्यों फंसा है बिहार में मंत्रिमंडल विस्तार का पेंच?
बिहार की राजनीति और सत्ता को अपने हिसाब से चलानेवाले नीतीश कुमार आजकल ‘दबाव’ महसूस कर रहे हैं। आखिर वो ‘दबाव’ क्यों महसूस कर रहे हैं? क्या वो राज्य की राजनीति और फैसलों में बीजेपी के बढ़ते दबदबे से परेशान है? 2 दिन में उन्होंने एनडीए गठबंधन को लेकर 2 बड़ा बयान दिया। जिसमें एक तो दोस्त और दुश्मन वाला है जबकि दूसरा मंत्रिमंडल विस्तार से जुड़ा है। मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर उन्होंने कहा था कि बीजेपी की ओर से अब तक कोई बातचीत नहीं की गई है। बीजेपी नेताओं के साथ बैठक में सरकार के कामकाज को लेकर चर्चा हुई। बीजेपी नेताओं के साथ बैठक के दौरान कैबिनेट विस्तार पर कोई चर्चा नहीं हुई। जब तक पूरी बातचीत नहीं हो जाती, कैबिनेट विस्तार कैसे होगा। कैबिनेट विस्तार में इतनी देरी पहले कभी नहीं हुई। मैं हमेशा पहले ही कैबिनेट विस्तार कर देता था।
जबकि राज्य कार्यकारिणी की बैठक में ही नीतीश कुमार ने संकेत दिया कि 2015 से भंग कमेटियां जल्द ही गठित होंगी। कार्यकर्ताओं को इनमें जगह दी जाएगी। हम चाहते थे कि कमेटियां बने लेकिन सहयोगी दल नहीं चाहे। 2015 में सहयोगी दल आरजेडी और कांग्रेस थी मगर उसके बाद तो बीजेपी हो गई। नीतीश कुमार का इशारा किसके तरफ था अंदाजा ही लगाया जा सकता है।