सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार की सुनवाई के दौरान किसान आंदोलन को लेकर सरकार के रवैये पर निराशा जताते हुए कड़ी फटकार लगाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि आंदोलनकारी किसानों की समस्याएं सुनकर उन्हें दूर करने के मकसद में सरकार बिल्कुल विफल रही है। दिलचस्प बात यह है कि सोमवार को जिस सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणियों से सरकार की खूब किरकिरी करवाई, मंगलवार को उसी के फैसले ने सरकार को इतनी बड़ी राहत दे दी। आइए कुछ बिंदुओं में समझते हैं कि आखिर कृषि कानूनों का भविष्य तय करने की जिम्मेदारी अपने हाथों में लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को राहत दी तो कैसे…
तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ कुछ किसान संगठन 48 दिनों से दिल्ली की विभिन्न सीमाओं पर डेरा डाले हुए हैं। तीनों कानूनों की वापसी की मांग पर अड़े किसानों के प्रति रुख को लेकर सरकार सवालों के घेरे में आने लगी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की तरफ से चार सदस्यीय समिति गठित होने के बाद सरकार को बड़ी राहत मिल गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार की सुनवाई के दौरान किसान आंदोलन को लेकर सरकार के रवैये पर निराशा जताते हुए कड़ी फटकार लगाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि आंदोलनकारी किसानों की समस्याएं सुनकर उन्हें दूर करने के मकसद में सरकार बिल्कुल विफल रही है। दिलचस्प बात यह है कि सोमवार को जिस सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणियों से सरकार की खूब किरकिरी करवाई, मंगलवार को उसी के फैसले ने सरकार को इतनी बड़ी राहत दे दी। आइए कुछ बिंदुओं में समझते हैं कि आखिर कृषि कानूनों का भविष्य तय करने की जिम्मेदारी अपने हाथों में लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को राहत दी तो कैसे…
1. अब सरकार से किसान आंदोलन की नहीं रही कोई दरकार, गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में
ज्यों-ज्यों किसान आंदोलन अगले दिन में प्रवेश कर रहा था, त्यों-त्यों सरकार की सोच और उसके रवैये पर संदेह गहराता जा रहा था। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को इसका जिक्र किया और सरकार को आंदोलनकारी किसानों के प्रति अपना रवैया बदलने को कहा। उसने सोमवार को जो कहा, उसे मंगलवार को कर भी दिखाया। शीर्ष अदालत ने कहा था कि अगर सरकार ने कृषि कानूनों के अमल पर रोक नहीं लगाई तो वो खुद इसे स्थगित कर देगा और यही हुआ भी। अब सरकार यह कह सकती है कि जब देश में कृषि कानून लागू ही नहीं है तो किसान आंदोलन की जरूरत ही नहीं है। मतलब, अब किसान आंदोलन से सरकार का कोई लेनादेना नहीं रह गया। हां, उस पर आंदोलन स्थल पर शांति और सुरक्षा बनाए रखने की जम्मेदारी जरूर है, लेकिन आंदोलनकारी किसानों को मनाने-समझाने की नैतिक जिम्मेदारी से उसे छुटकारा जरूर मिल गया।
2. किसानों को समझाने-मनाने की जिम्मेदारी से मुक्ति
इसमें दो राय नहीं कि किसान आंदोलन सरकार के गले की फांस बन चुकी थी जो हर दिन थोड़ी और कसती जा रही थी। सरकार ने इससे मुक्ति पाने के लिए किसान संगठनों से कई दौर की बात की। चूंकि किसान कानूनों की वापसी की मांग से टस-से-मस नहीं हुए, इसलिए हर दौर की बातचीत बेनतीजा रही और हर बार यही उम्मीद जताई जा रही थी कि अगले दौर की वार्ता में कुछ-न-कुछ रास्ता जरूर निकल जाएगा। लेकिन, अब सरकार को इन सबसे छुटकारा मिल गया। अब उस पर किसानों से बातचीत करने की जिम्मेदारी ही नहीं रही। इसलिए, अब उसे अगले दौर की बातचीत के लिए किसानों को मनाने, फिर बातचीत के प्रस्तावों की रूपरेखा तय करने और इस तरह तमाम तरह की माथापच्ची से सरकार मुक्त हो गई।
3. दुविधा से उबरी सरकार
आंदोलनकारी किसानों के शब्दों में कहें तो सरकार को कृषि कानूनों के प्रति समर्थन जुटाने का भी तिकड़म भिड़ाना पड़ रहा था। अलग-अलग किसान संगठन केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मिल रहे थे और उनसे कृषि कानूनों को वापस नहीं लेने की अपील कर रहे थे। अब इसे सरकार की तरह से सोचें तो उसके लिए यह दुविधा की स्थिति थी कि वो आखिर किसान संगठनों के कौन से समूह की बात माने, किसकी नहीं। एक समूह कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग से डिग नहीं रहा तो दूसरा समूह कानूनों को निरस्त करने की स्थिति में देशव्यापी आंदोलन की धमकी दे रहा था। ऐसे में सरकार जरूर सांसत में फंसी थी। उसके लिए कानूनों को वापस लेना भी इतना आसान नहीं रहा था।
4. धरी की धरी रह गईं विपक्ष की तैयारियां
विपक्षी दल किसान आंदोलन के बहाने सरकार को घुटने के बल लाने की हरसंभव कोशिश में जुटे थे। सोमवार को जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की क्लास ली तो मानो विपक्षी खेमे में खुशी की लहर दौड़ गई। सभी ने सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों में अपने लिए बड़ा मौका देखा और आगे की रणनीति में जुट गए। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तो कई विपक्षी नेताओं से बात भी कर डाली और उनसे अनुरोध किया कि सभी विपक्षी दल किसान आंदोलन के मुद्दे पर एकजुट हो जाएं। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट की ओर से कमेटी गठित होते ही सरकार की भूमिका सिमट गई। ऐसे में सवाल उठता है कि विपक्ष अब रणनीति बनाए तो किसके खिलाफ? अब अगर विपक्ष ने किसान आंदोलन को हवा देने की कोशिश की तो सीधा-सीधा संदेश जाएगा कि उसे सुप्रीम कोर्ट पर आस्था नहीं है और वो सरकार के खिलाफ नहीं, सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ अभियान चला रहा है।
5. किसानों की मौतों से बन रहा दबाव भी खत्म
आंदोलन में शामिल किसान आत्महत्या का राह भी चुनने लगे हैं। कई किसानों ने आंदोलन स्थल पर ही जान देने की कोशिश की और उसमें कामयाब भी हो गए तो कई अन्य किसानों की ठंड और दूसरे स्वास्थ्य कारणों से भी मौत हो गई। हरेक किसान की मृत्यु से किसान पर दबाव बढ़ता जा रहा था और उसकी छवि खराब हो रही थी। अब किसानों की मौत हुई तो दोष सुप्रीम कोर्ट पर जाएगा और यह पूछा जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने कमिटी को रिपोर्ट देने के लिए दो महीने की मियाद तय की है। इस बीच किसानों ने जान दी या देने की कोशिश की तो इसके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा।
6. आमजन की नाराजगी का भी डर नहीं
सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप ने सरकार को किसान आंदोलन को लेकर आम जनता की नाराजगी से भी बचा लिया। आंदोलन के दिन बढ़ने के साथ-साथ सरकार की छवि को धीरे-धीरे ही सही, बट्टा लगने लगा था। यह अलग बात है कि एक वर्ग ऐसा भी है जो किसान आंदोलन को साजिश के नजरिए से देखता है और उससे कड़ाई से निपटने का पक्षधर है, लेकिन एक बड़े वर्ग में सरकार के रवैये से नाराजगी भी पनप रही थी। अब जब गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में चला गया है तो आम लोग भी कमिटी की गतिविधियों की चर्चा करेंगे ना कि सरकार के रवैये की। यानी, आम जनता के बीच होने वाली चर्चा के केंद्र में अब सुप्रीम कोर्ट, उसकी कमिटी आ गई। किसान संगठनों के रुख को अब भी जांचा-परखा जाएगा, लेकिन सरकार सीन से ही हट गई।