झारखंड () के चतरा स्थित गिद्धौर प्रखंड में मकर संक्रांति () के मौके पर लगने वाले चार राज्यों का प्रसिद्ध बलबल पशु मेला (Balbal Fair Jharkhand) इस बार नहीं लगेगा। उद्घाटन के 55 साल बाद यह पहला मौका है जब ये मेला नहीं लग रहा है। मेला नहीं लगने से स्थानीय दुकानदार और व्यवसायी मायूस हैं। ग्रामीणों में भी जबरदस्त निराशा देखी जा रही है। जिला प्रशासन की ओर से कोरोनावायरस संक्रमण के खतरे को लेकर मेले पर पाबंदी लगाई गई है। लिहाजा मकर संक्रांति के एक पखवारे पहले जिस स्थान पर मेला को लेकर गहमागहमी शुरू हो जाती थी और दूरदराज के व्यापारी पहुंचने लगते थे। वहां आज सन्नाटा पसरा हुआ है।
1965 में शुरू हुआ था इस मेले का आयोजन
बलबल पशु मेले की शुरुआत 1965 में हुई थी। चतरा के पूर्व विधायक महेंद्र सिंह भोक्ता के नेतृत्व में इसकी शुरुआत हुई थी। शुरुआत में चतरा और हजारीबाग के स्थानीय लोग मेले में पहुंचते थे। धीरे-धीरे इसका स्वरूप बदलता गया और बाद में बिहार, बंगाल और छत्तीसगढ़ के व्यापारी भी इस मेले में पहुंचने लगे। दूर-दूर से मवेशी, पशु-पक्षी की खरीदारी के लिए लोग यहां पहुंचते थे। मकर सक्रांति के मौके पर लगने वाला यह उत्तरी छोटानागपुर का सबसे बड़ा पशु मेला रहा है। कई मायने में ये ऐतिहासिक माना जाता था। कई पारंपरिक हथियार, लोहे, पीतल, स्टील के बर्तन की खरीद-बिक्री होती थी। मेला एक पखवारे तक चलता था। झूले, नाच- गाना, थियेटर, आर्केस्ट्रा इत्यादि भी मेले के आकर्षण का केंद्र बिंदु हुआ करता था।
लाखों लोग करते थे गर्म सूर्यकुंड में स्नान
मकर संक्रांति के मौके पर लगने वाले 10 दिवसीय बलबल पशु मेला में एक पखवारे में लाखों लोग गर्म सूरज कुंड में स्नान करते थे। मकर संक्रांति के दिन यहां हजारों की संख्या में लोग गर्म सूर्य कुंड में स्नान कर चूड़ा तिलकुट का आनंद लेते थे। मेला परिसर में स्थित मां बागेश्वरी मंदिर में हजारों लोग पूजा अर्चना कर मत्था टेकते थे। ऐसे में मंदिर प्रबंधन समिति को भी अच्छी-खासी आमदनी होती थी। परंतु इस बार मेला का आयोजन नहीं होने से हर किसी को नुकसान उठाना पड़ रहा है।
युवकों को मिलता था रोजगार, सरकार को होती थी लाखों की आमदनी
बलबल पशु मेले में स्थानीय बेरोजगार युवकों को एक पखवारे तक रोजगार मिलता था। युवक मेला में लगने वाले होटल, आर्केस्ट्रा, मौत का कुआं, हिंडोले, सर्कस और अन्य संस्थानों में काम करते थे। वहीं मेले से सरकार को हर साल तकरीबन 10 लाख रुपये तक के राजस्व की आमदनी होती थी। जिला प्रशासन मेला का डाक कराती थी। मेला में लगने वाले विभिन्न व्यसायियों का स्टाल, होटल और अन्य संस्थानों से राजस्व वसूली के लिए 3 दर्जन से अधिक लोग काम करते थे। इन्हें भी मेहनताना मिलता था। आसपास के कई गरीब परिवार के लोग इस मेले में मजदूरी कर कई महीने का खर्चा पानी की व्यवस्था करते थे।
स्थानीय दुकानदार और व्यवसायी मायूस
मेले के इस बार नहीं लगने से स्थानीय दुकानदार और व्यवसायी मायूस हैं। उनके अनुसार मेला नहीं लगने से उन्हें इस बार जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ रहा है। कई परिवारों के एक साल का जीवोकोपार्जन मेला के भरोसे होता था। होटल वाले मेले को लेकर इन दिनों मिठाई बनाने में व्यस्त होते थे। परंतु उनके यहां न तो मिठाई बन रही है और ना ही कोई तैयारी की जा रही है। उनके चूल्हा-चौका पर ब्रेक लगा हुआ है और घरों में मायूसी छाई हुई है। बर्तन वाले व्यवसायियों का भी यही हाल है।